“आयुर्वेद” शब्द “ आयु” और “वेद “दो शब्दों की संधि से बना हैं | आयु का अर्थ हैं अवस्था, उम्र या जीवन और वेद शब्द का अर्थ हैं-ज्ञान | अतः आयुर्वेद का अर्थ हुआ-आयु से सम्बंधित ज्ञान | आयुर्वेद को विद्वानों ने अथर्ववेद का उपवेद माना हैं |
आयुर्वेद हमारी पृथ्वी की सबसे प्राचीन चिकित्सा पद्धति हैं जो वैदिक काल से भी पहले ईसा पूर्व (5000) वर्ष पूर्व से अनवरत चल रही हैं | आयुर्वेद सनातन है, शास्वत हैं अनंत हैं| आयुर्वेद की उत्पत्ति स्वयं ब्रह्मा ने की उनसे प्रजापति -अश्विनी कुमार- भारद्वाज ऋषि-धन्वन्तरी-महर्षि च्यवन-अगस्त्य-महर्षि पुनर्वसु-आत्रेय-चरक-सुश्रुत-कश्यप-वाग्भट्ट-बंगसैन-माधव आदि आयुर्वेद के महान विद्वानों के योगदान से एवं गुरु शिष्य परंपरा के द्वारा आयुर्वेद अनादि काल से आलोकित होकर विश्व का मार्गदर्शन कर रहा है |
आयुर्वेद के एक प्रमुख ग्रन्थ “सुश्रुत संहिता” भगवान् धन्वन्तरी के प्रमुख शिष्य महर्षि सुश्रुत द्वारा ईसा पूर्व लगभग 1000 वर्ष पूर्व लिखा गया| महर्षि सुश्रुत को शल्य चिकित्सा का जनक माना जाता हैं | तथा वह विश्व के प्रथम प्लास्टिक सर्जन थे|
आयुर्वेद का ज्ञान अत्यंत विशाल हैं | इसमें ही ऐसी प्रणाली का ज्ञान हैं जो मानव को निरोगी रखते हुए स्वस्थ लम्बी आयु तक जीवित रहने के लिए मार्ग प्रशस्त कराता हैं ताकि मानव सारी उम्र सुख शांति व निरोगी होकर लम्बे समय तक अपना जीवन यापन कर सके | मानव हित व अहित किसमें हैं ?आयुर्वेद इसका ज्ञान कराता हैं |
“हिताहितं सुखं दु:खमायुस्तस्य हिताहितम्|
मानं च तच्च यत्रोक्तामयुर्वेद: स उच्यते||”
अर्थात जिस ग्रन्थ मे हित आयु, अहित आयु, सुख आयु, दुःख आयु, इस प्रकार चार प्रकार की आयु के लिए हित (पथ्य), अहित (अपथ्य) इस प्रकार का मान (प्रमाण और अप्रमाण) और आयु का स्वरुप बताया गया हो, उसे आयुर्वेद कहा जाता हैं|
आयुर्वेद की चिकित्सा एवं स्वास्थ्य के नियमों का एक ही मूल प्रयोजन हैं |
“स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षमातुरस्य विकार प्रशमनं च||”
अर्थात स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना और रोगी व्यक्ति के रोग को दूर करना हैं |
आयुर्वेद मैं पूर्णत: स्वस्थ व्यक्ति की परिभाषा इस प्रकार हैं
“समदोष: समाग्निश्च समधातुमलक्रिय: |
प्रसंनात्मेंद्रियमना: स्वस्थ इत्यमिधीयते ||
अर्थात वही मनुष्य पूर्ण स्वस्थ हैं जिसके शरीर मे वात अर्थात स्नायुमंडल, पित्त अर्थात पाचकाग्नि एवं रक्त संवहन और कफ अर्थात ओज (जीव शक्ति) एवं मलोत्सर्ग यह तीनो ही निश्चित अवस्था मे बराबर- बराबर एक सामान हो और तीनो प्रणालियाँ यथावत काम करती हो, जिसकी अग्नि सम हो अर्थात तीव्र या मंद न हो, जिसके खाये पिए अन्नादि का पाचन ठीक ढंग से होता हो, समधातु अर्थात जिसकी रस-रक्त मॉस-मज्जा आदि समस्त शरीर धातुए कम ज्यादा न हो जिसकी मल क्रिया अर्थात शरीरगत मलों को भीतर से बाहर निकालने वाली प्रणाली ठीक- ठाक कार्य करती हो जिससे मल-मूत्र कफ और पसीना आदि मैल यथासमय नियमित निकलते रहते हो| इसके साथ ही जिसकी आत्मा, मन और इन्द्रियाँ प्रसन्न एवं संतोषी रहे- वही स्थिति पूर्ण स्वास्थ्य की परिचायक हैं |
इस प्रकार आयुर्वेद केवल शारीरिक स्वास्थ्य का ही नहीं अपितु मानसिक, आत्मिक एवं आध्यात्मिक स्वास्थ्य का भी पक्षधर हैं|
मनुष्य के लिय 7 सुख बताये गये हैं जिसमे पहला सुख निरोगी काया हैं | आयुर्वेद मे भी कहा गया है की —
“धर्मार्थकाममोक्षानाम आरोग्यं मूल मुत्तमं||”
अर्थात चारो पुरुषार्थ धर्म अर्थ काम और मोक्ष को प्राप्त करने का मूल आधार स्वास्थ्य ही है |
महर्षि वाग्भट्ट ने भी कहा है : –
“आयु: कामयमानेन् धर्मार्थसुखसाधनं |
आयुवेर्दोपदेशेषु विधेय: परमादर: || “ (वाग्भट्ट)
अर्थात संसार के सभी अभीष्ट कार्यो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि स्वस्थ शरीर और दीर्घ आयु से ही हो सकती हैं| अत: दीर्घायु और स्वास्थ्य की कामना करने वाले प्रत्येक मानव को आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त करना और उसके उपदेशो का पालन करना चाहिए|
आयुर्वेद ने स्वास्थ्य की रक्षा करने के लिए तथा पूर्ण स्वास्थ्य की निश्चित स्थिरता हेतु 3 मूलाधार बताये हैं:–
“त्रय: उपस्तम्भा इति – आहार: स्वप्नों ब्रह्मचर्यमिति |”
अर्थात शरीर और स्वास्थ्य को स्थिर, सुद्रढ़, दीर्घायु और उत्तम बनाये रखने के लिए संतुलित आहार, स्वप्न(निद्रा) विश्राम तथा ब्रह्मचर्य का युक्तियुक्त सेवन करना चाहिए |
शरीर में त्रिदोष अर्थात 3 मूल तत्व हैं- वात, पित्त और कफ़ | जब ये तीनो संतुलित होते हैं अर्थात सम होते हैं तो सप्त धातु व शरीर को धारण करते एवं संतुलित रखते हैं तथा जब वात पित्त और कफ दूषित होते हैं तो शरीर मे रोग उत्पन्न कर देते हैं| इनसे उत्पन्न रोगों की जानकारी आयुर्वेद के विद्वान केवल नाड़ी पकड़ कर ही बता देते है | नाड़ी विज्ञानं केवल आयुर्वेद की ही देन हैं|
ऐसे श्रेष्ठ और उच्च आदर्श वाले नियम सिद्धांतो का प्रतिपादन करने वाला आयुर्वेद शास्त्र विश्व का एकमात्र ऐसा चिकित्सा शास्त्र है जो औषधि और रोग चिकित्सा से भी अधिक महत्व उचित आहार-विहार,पथ्य-अपथ्य,परित्याग आदि रोगों से बचाव करने के उपायों को देता हैं और उस कारण को दूर करना चिकित्सा का पहला कदम बताता हैं जो की रोग पैदा कर रहा हो|
आयुर्वेद मनीषियों ने आयुर्वेद को मुख्य रूप से 8 भागों मे बांटा हैं|
- काय चिकित्सा
- शल्य तंत्र (शल्य चिकित्सा)
- शालक्य तंत्र (कंधो से उपर के रोगों की चिकित्सा) (उर्ध्वजत्रुगत रोग)
- कौमारभृत्य (बाल रोग)
- अगद तंत्र (विष चिकित्सा)
- भूत विद्या
- रसायन तंत्र
- बाजीकरण
आयुर्वेद के सार स्वरूप प्रमाणिक ग्रन्थ- भाव प्रकाश, चरक-संहिता, सुश्रुत-सहिंता, माधव-निदान, सारंगघर-संहिता, अष्टांग ह्र्द्यम, निघंटु, योग-रत्नाकर, भैषज्य-रत्नावली, रसेन्द्र सार संग्रह, रस-तरंगिनी, सिद्ध भैषज्य मणिमाला, रसतंत्र सार व सिद्ध प्रयोग संग्रह आदि हैं|
आयुर्वेद का इतना विशाल आयाम हैं की इसके किसी भी विषय को सीमा से नही बांधा जा सकता| रोगी को स्वस्थ करने के लिए औषधियों का वर्णन है तो स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करने के लिए सदाचार, दिनचर्या, रात्रिचर्या, ऋतुचर्या का भी वर्णन हैं| परस्पर विरोधी एवम असेवनीय तथा त्याज्य पदार्थो का वर्णन है तो दूसरी ओर धारण न करने योग्य वेगों का भी सूक्ष्म वर्णन हैं| आयुर्वेद ने हरे पत्ते, पौधे, बीज, फल, छाल, मूल आदि को औषधि माना है:–
“अनेनोपदेशेन नानौषधिभूतं जगति किंचित”
अर्थात इस संसार मे ऐसा कोई द्रव्य नहीं है जो औषधि न हो|
आयुर्वेद चिकित्सा दुष्प्रभाव (Side Effect) रहित चिकित्सा पद्दति है | यह विश्व की एकमात्र ऐसी चिकित्सा पद्दति है जो रोग को समूल नष्ट कर भविष्य के लिए भी रोकथाम का उपाय (प्रबंध) करती हैं|
वास्तविकता मे आयुर्वेद श्रेष्ठ और स्वस्थ जीवन शैली का नाम है, जीवन के ज्ञान और मनुष्य के जीवन को स्वस्थ और सुखी बनाने वाले विज्ञानं का नाम है | हमारे ऋषि मनीषियों द्वारा प्रस्तुत इस अदभुत शास्त्र आयुर्वेद के मार्गदर्शन और उपदेशो का पालन करना सभी मनुष्यों के जीवन के लिए कल्याणकारी है इसमें कोई संदेह नही |